शनिवार, 2 जुलाई 2016

मेरी तुम्हारी दुनिया

मेरी तरह तुम्हारी भी होगी एक दुनिया,
उसमें होंगी कई सारी खिड़कियां,
जिनमें झांकते होंगे अनगिनत चेहरे।
कुछ तुमने सजाएं, कुछ ने खुद बखुद अपनी जगह बना ली।
तुमने मेरी तरह एक चैाखट भी बनाई होगी,
और उसे बार बार तोड़ने की भी कोशिश की होगी,
फिर झल्ला कर, खुद को कोसते, बैठ जाते होगेे अपने कोने में।
मेरी तरह तुमने अपना वो कोना भी बनाया होगा,
जिसकी दीवारों की दरारों को भरने का वक्त तुम्हें नहीं मिल पाता।
तुमने मेरी तरह, खिड़कियों में लहराते पर्दो में कुछ फूल भी टांके होंगे
जिनके बीच से झांकते चेहरे, उन फूलों को चुन कर ले जाते होंगे।
दरवाजों के पीछ मेरी तरह तुमने कुछ कीलें भी लगाई होंगी,
जिस पर रोज रात टांगते होगे दिन भर की थकान को।
तुमने बीचो बीच एक मेज भी लगाई होगी,
मेरी तरह तुम भी आगंतुको के आने पर जिस पर रखी फूलदानी मे
सजाते होगे अपने बगीचे के कुछ फूल।
मेरी तरह तुम्हारा एक बिस्तर भी होगा
जिसकी सफेद चादर को इंद्रधनुषी रंगों से तुम रंगना चाहते होगे।
पर सिलवटों को संभालने में सारी रात निकल जाती होगी।
कई बार तुम्हारी दुनिया से उड़ती हुई आई चिड़िया,
मेरी दुनिया के मुंडेर पर बैठ जाती है
शायद रास्ता भूल जाती है, एक जैसी जो है हमारी दुनिया!
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अमृता
एक कविता तुम्हारे नाम
एक कविता उस सुबह के नाम 
जिसमें तुमने ओस की बूंदों को मुट्ठी में भरकर मेरे तपते माथे पर रखा था, 
उसकी ठंडक अभी तक मेरे जिस्म में बिखरी पड़ी है।
एक कविता उस दोपहर के नाम 
जिसका सूरज मैंने तुम्हारी आंखों से देखा 
और तुमने घबरा कर आंखें बंद कर ली थी की कहीं मैं झुलस न जाऊं।
एक कविता उस शाम के नाम 
जब हम वक्त के कांटें थामने की कोशिश कर रहे थे, 
और वक्त बच्चे की तरह खिलखिलाता हुआ 
कभी लिपट जा रहा था कभी दूर भाग जा रहा था।
एक कविता उस रात के नाम 
जब अनजाने में एक ख्वाब हमारे तकिए के नीचे छुप कर सो गया था,
आज भी वो नादान अंगुली पकड़ कर साथ चल रहा है।
एक कविता उन परछाइयों के नाम जिन्होंने 
हमारे तुम्हारें दरमियां की रेाशनी को रेाक लिया था।
एक कविता तुम्हारे साथ के नाम,
तुम्हारे खोने और होने के नाम। 
एक कविता सिर्फ तुम्हारे नाम,
रेत पर लिखी प्रेम कहानियों की तरह नहीं 
गुम्बदों पर लिखी आयतों की तरह
जो वक्त की रजाई में सुकून से करवटें ले रही हैं।

हम बस भीड़ हैें

हम बस भीड़ हैें
हम सब भीड़ की ऊंगली थामे वक्त के अंधेरे में खो गए हैं। कहीं कोई लड़खड़ाता है तो कुछ मोमबतियां उसकी याद में जला लेते हैं, कुछ मशालों की लपटे आसमान तक पहुंच जाती, कुछ पल के लिए रोशनी आ जाती, फिर थाम लेते भीड़ की ऊंगली और वक्त के बीच रास्ता बनाने लगते हैं। हममे नहीं हैं ताकत अकेले चलने की, हम भीड़ का आसरा खोजते हैं। क्योंकि आसान है भीड़ के साथ चलना, खुद कदम न भी बढाओ तब भी मंजिल तक तो पहुंच ही जाओगे। बिना किसी जद्दोजेहद और मेहनत के। पर रहोगे भीड़ का हिस्सा ही मैं या तुम नहीं। 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

मेरा तुम्हारा सच

मेरा तुम्हारा सच
तुमने कहा साथ मैनें कहा दोस्ती
तुमने कहा देह मैंने कहा आत्मा
तुमने कहा पा लिया मैंने कहा खो दिया
तुमने कहा अधूरा मैंने कहा पूर्णता
तुमने कहा हिस्सा मैंने कहा जिंदगी
हम अपनी अपनी परिभाषा लिए स्वनिर्मित परीधियों में खड़े रहे
प्रेम यूंही आ कर आस पास से गुजर गया। -अमृता

गैर ज़रूरी यातना

यह अनसुनी असभ्य बर्बरता है कि कोई स्त्री इतनी विकराल यातना सहने को बाध्य हो। इसका ईलाज खोजना चाहिए। यह रुकना चाहिए। यह बड़ी वाहियात बात है कि हमारे आधुनिक विज्ञान के बावजूद पीड़ारहित प्रसव एक हकीकत नहीं बन सका है। यह उतना ही अक्षमम्य है जितना बेहोशी की दवा लिए बिना पथरी निकालने का आॅपरेशन करना। स्त्रियों में कितना शैतानी धैर्य है, बुद्धि का कितना अभाव है, कि वे इस जंगली नरसंहार की मूक शिकार होती चली जा रही हैं। मेरे सामने किसी नारी आंदोलन का नाम नहीं लेना जब तक कि स्त्रियां इसे खत्म करने में सफल नहीं होती! मेरे विचार से यह बिल्कुल व्यर्थ की प्रताड़ना है। बच्चे के जन्म का आॅपरेशन भी दूसरे आॅपरेशनों की तरह दर्दरहित और सहनीय बनाया जाना चाहिए। ऐसा कोई कदम उठाने में आखिर कौन सा अंधविश्वास आड़े आ रहा है? कितनी निर्दयी कितनी आपराधिक अवहेलना है!
---------इजाडोरा की प्रेमकथा।
............. सही बात है मुझे भी लगता है इस पीड़ा को स्त्री क्यों सहने के लिए बाध्य है। बच्चे के जन्म को क्या पीड़ा रहित नहीं बनाया जा सकता? उस तकलीफ को फिर ग्लोरीफाई किया जाता है, अगर मां ने दर्द नहीं सहा तो मां ही नहीं है। सिजेरियन होने पर भी नोर्मल डिलिवरी का दबाव बनाया जाता। जरूरी है स्त्री से इतना कष्ट झेलवाना। समाज में ऐसा माहौल रहता है कि अगर आपने प्रसव की पीड़ा को नहीं झेला तो दूसरी औरत जिसने पीड़ा झेला है खुद को गौरवान्वित महसूस करती हुई ऐसी हिकारत की नजर से देखेगी जैसे तुम क्या मां हो मां तो मैं हूं। ये भी पैट्रीआरिकल माइण्ड सेट की ही तो सोच है। मां, ममता, तकलीफ, दर्द, त्याग, वगैरह वगैरह। इन सब आभूषणों से स्त्री को सुसज्जित करके तकलीफ झेलने के लिए मजबूर करता है समाज। बिना तकलीफ के बच्चा हो जाए तो क्या मां मां नहीं रहेगी, बच्चे से उसका लगाव कम हो जाएगा?...................... एक बात सोच रही थी ।

प्यार और नफ़रत

प्यार और नफरत एक साथ तब ही चलतें हैं जब आपकी भावना खुद से ज्यादा जुड़ी होती है। दूसरे व्यक्ति का स्वतंत्र वजूद वास्तव में आपके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता। वह बस उस दीवार की तरह होता है जहां से टकराकर आपकी भावनात्मक बाॅल वापिस लौटती है। आप उम्मीद करते हैं कि जितनी शक्ति से आपने उस बाॅल को दीवार की तरफ फेंका है उतनी ही शक्ति से वह वापिस भी हो। दीवार आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं बाॅल आपके लिए महत्वपूर्ण है। क्योंकि वह आपका है और उसमें लगी शक्ति भी आपकी है। हमें लगता है कि हम दूसरे व्यक्ति से प्यार करते हैं, वास्तव में हम प्यार खुद से करते हैं व्यक्ति विशेष से नहीं। और वह प्यार तभी तक फलता फूलता है जब तक वह आपकी लगाई शक्ति का रिटर्न देता है। अगर नहीं देता तो हम उससे नफरत करने लगते हैं। क्योंकि वह हमारे अहं पर चोट पहुंचाता है। हमारी उस शक्ति के सामने प्रश्न चिन्ह लगाता है जिसके भरोसे हमने अपनी भावनात्मक बाॅल दीवार की तरफ फेंकी थी। यानी हम अपने आप से बाहर तो निकले ही नहीं, फिर किस बात का प्यार? सही मायनें में प्यार तब होता है जब हम खुद से बाहर निकल कर प्रेम करते हैं, जहां अहं जैसे भाव का कोई स्थान नहीं होता, प्रेमी पात्र की खुशी हमें ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। और जहां अहं नहीं होगा वहां नफरत भी नहीं होगी।............ नाॅट श्योर पर मुझे ऐसा लगता है। या कह सकते हैं मेरे लिए प्यार की यह परिभाषा है।......... बाकी सब....... कैमिकल लोचा है  ।----- 

मंगलवार, 15 जुलाई 2008

ऐसा क्यों होता hai

एक लम्बी दौड़ फिर थक हर केर बैठना , फिर एक सवाल इतनी mअहनत

इतनी कौशिश किस लिए क्या जो हम चाह रहे थे वो यही है'या अभी और दौड़ना बाकी है ,लेकिन कब तक ये दौड़ chaleygi